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हिमांशी सिंगला

हिमांशी सिंगला कनाडा के ओशवा शहर में रहती हैं। कुदरत से प्रेरणा लेकर, ज़िंदगी के सफर को कविता के माध्यम से शब्दों में पिरोना पसंद करती हैं। इनकी कुछ कविताओं को कनाडा की पत्रिकाओं में छापा गया है। कविता इनके लिए कुदरत की देन है।


ब्लॉग - https://www.deepakmanglablog.com/ 

इंस्टाग्राम - @himanshi.singla.3760

किंत्सुगी

ऐसा नहीं के मैं कभी बिखरी नहीं,

बस किंत्सुगी से तराशे मेरे जिस्म ने

मेरे ज़ख्मों को हर बार नया जीवन दान दिया है,

और तुम समझ बैठे के मैं सोना हो गई।


अब बात बस इतनी सी है,

मैने खुद को तराशना सीख लिया है,

और

तुमने मुझे बिखेरना सीख लिया है।


मैं उस शहर की तरह हो गई

जहां बहुत भीड़ है, शोर भी बहुत है,

पर फिर भी सन्नाटा हर शोर को चीर देता है।


सर्दियों में कुछ नादान पंखुड़ियां ज़िद्द कर बैठती हैं

बिन पत्तों की डालियों पे ठिठुरती हुई भी

बहार के इंतजार में सर्दियां बिता देती हैं

पर बहार तो आते-आते ही आती है। 


मैं बस उन ज़िद्दी पंखुड़ियों जैसी ही हो गई

इस उम्मीद में कि बहार कभी तो दस्तक देगी

और तुम समझ बैठे कि मैं सर्दियों से डर गई।


ये कविता एक जापानी कला 'किंत्सुगी' से प्रेरित है। इस कला में मिट्टी से बने बर्तन या अन्य किसी भी चीज़ के टूटने पर, इन चीज़ों को फिर से सोने की मदद से जोड़ा जाता है। जोड़ने के बाद उस चीज़ पर निशान रह जाते हैं लेकिन यह पहले से भी मजबूत हो जाती है। इस कला को हम अपने जीवन से भी जोड़ सकते हैं। किंत्सुगी कला बताती है कि लोग कैसे विकट परिस्थितियों में खुद को संभाल सकते हैं और अपनी खामियों के साथ भी वे सुंदर हैं।

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