
ज्योति प्रकाश
ज्योति प्रकाश कहती हैं - "नाम की ज़रूरत शायद इंसान होने का आधार है, मुझे मेरी मां ने ये आधार मेरा नाम ‘ज्योति प्रकाश’ रख कर दिया है।"
यह पिछले कुछ वर्षों से एक शिक्षक के पेशे को समझते हुए सोशल सेक्टर की दुनिया को समझ रही हैं। अभी नई हैं, इन्हें बहुत कुछ पुराना जानने समझने में वक़्त लगेगा। यह किताबों, इंसानों और बातों को जानने का प्रयत्न करती हैं।
हिंदी में लिखना इन्हें ख़ुद से बात करने जैसा लगता है, किंतु हिंदी में कुछ लिखना-पढ़ना इन्हें इससे भी प्रिय है। इन्हें प्रसन्नता है कि यह ख़ुद को पार कर, अपने केंद्र को पार कर, सभी पाठकों तक अपने कुछ शब्द पहुंचा पायीं।
भीड़ ख़ोज लेगी तुम्हें
भीड़ ख़ोज लेगी तुम्हें,
गर तुम भीड़ में खोए
अपनी ही सतह पर जमने को
बर्फ़ की बोड़ी नहीं लगती
दो चार नश्तर नहीं लगते
कि लहू बहे, और तुम दर्द की आह भर सको
किसी दिन किसी रोज़
रौंद दिया जाएगा,
जिसके लिबास में तुम स्वयं को अधीन कर रहे
पिघल जाएगी हर वो बर्फ़, पर रास्तों पर जम जाएगा इतना जल
कि ज़लमय हो जाओगी तुम
तुम्हारे भीतर की भीड़ भी तुम्हें ढूंढ नहीं पाएगी
अपनी ही सतह पर किसी सड़क के पड़े कूड़े से रहोगे
जो दिख तो रही होगी हर यात्री की आंखों को,
पर हवा के विरुद्ध कोई भार नहीं उठा सकेगा
ढल जाओगी तुम,
लुढ़कते हुए एक खाई से दूसरी तक
कभी ना मिल पाओगी तुम
मलिन, एक भीड़ से कुचली दूसरे भीड़ तक।