नवरात्रा
नवरात्रा जयपुर, भारत, की एक उभरती हुई लेखिका हैं। इनकी रचनाएँ विभिन्न राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें साहित्य कुंज, इंडियन पीरियोडिकल, ओड टू ए पोएटेस, स्पिलवर्ड्स प्रेस, सेतु पत्रिका, द क्राइटेरियन, स्टोरी मिरर, मद्रास कूरियर, इंकपेंट्री, मैड इन अमेरिका, द ब्यूटीफुल माइंड जर्नल, हिंदी कुंज, स्कार्लेट ड्रैगन फ्लाई जर्नल, वूमेन स्पिरिचुअल पोएट्री, इंडस वुमन राइटिंग, बैसेट हाउंड प्रेस, फीवर ऑफ द माइंड जर्नल, पाइकर प्रेस, आदि सम्मिलित हैं। इसके अतिरिक्त यें देश-दुनिया की रोमांचकारी यात्राओं में अत्यंत रुचि रखती हैं तथा अपने अवलोकन के अनुसार विभिन्न विषयों पर अनायास ही लिखना पसंद करती हैं।
पराया वक़्त
आज जो मैं सुबह उठी
तो सोचा थोड़ा तैयार हो जाऊं,
माना कोई बार नहीं, त्योहार नहीं,
पर क्यों ना बस एक दिन
ख़ुद को ख़ुद के लिए सजाऊँ?
जीवन इतना छोटा सा है
पर उसे जीने के लिए मैंने बहुत कुछ सीखा
कभी खाने में नमक,
कभी चलने का ढंग,
कभी कपड़ों का नाप,
तो कभी बोलने का सलीका
तो क्यों ना बस एक दिन
सब कुछ छोड़कर थोड़ा सा वक्त
मैं अपने लिए निकाल लूँ?
दूसरों के साथ तो बहुत सी यादें हैं,
क्यों ना एक यादगार दिन
मैं अपने साथ बिता लूँ?
यही सोचते-सोचते जाने कब
मैंने खुद को रोज़ वाले कपड़ों से ढक लिया,
आईने में देखा तो याद आया,
मैंने अभी तक लड्डू के पापा को उनका टिफिन तक नहीं दिया!
रसोई की तरफ भागी
तो आईना पीछे से चिल्लाया :
"आज तो सजने का इरादा था,
और तूने काजल तक नहीं लगाया!"
पर काजल लगाने के लिए रुकती,
तो आँखों से ज्यादा सब्जी काली हो जाती,
तैयार तो मैं कल भी हो सकती थी,
पर लड्डू को भूखा थोड़ी ना देख पाती।
ऐसी ही कुछ उलझनों में
आज का दिन भी निकल गया,
और अपने आप को वक्त देने का मौका
आज फिर हाथ से फिसल गया।
वैसे ये काम ज़रूरी नहीं,
फिर भी रोज़ सोने से पहले
और जागने के बाद
जाने क्यों मैं इस बारे में सोचती हूं,
मेरा वक़्त मेरे परिवार के लिए है,
ये बात माँ ने नई दुनिया में आते ही समझाई थी
फिर भी मैं रोज़ थोड़ा सा वक़्त
अपने लिए भी खोजती हूँ
और मुझे पूरा भरोसा है,
ये खज़ाना मुझे एक दिन मिल ही जाएगा,
वक़्त आखिर मेरा है,
तो मेरे लिए भी निकल ही जाएगा।