प्रखर सिंह
प्रखर सिंह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली, से बी.ए. के छात्र हैं। भाषा को लिखने, पढने एवम भोगने में सुख की तलाश करते हैं।
चिराग
(१)
अंधेरी रात है ध्यान से सुनो,
एक चित्कार सुनाई देगी,
पेट भर बिस्तर पर पड़े हो,
ग़ौर करो एक पुकार सुनाई देगी,
भुख से बिलखती कोई बच्ची ,
दर्द से तड़पती कोई मां,
दिए की रोशनी से अंधेरे को
चीरने का ख्वाब देख रहा कोई बाप,
निराशा के आवरण में लिपटा,
बुत सा पड़ा है,
जैसे-जैसे रात गहरा रही है,
उसका ख़्वाब टूट रहा है।
(२)
छत से टपकती बूंदों को
बर्तन में भर रही ये मां
शायद नहीं जानती,
बारिश अब नहीं थमने वाली,
सीलन लगी दीवारों पर,
मिट्टी लीपने से जाड़ा नही जाता।
ठंड से ठिठुरता हुआ चिराग
हवा के एक झोके से बुझ सकता है।
कितनी लाचार है यह मां,
अगर दिया बुझता तो शायद
दूसरा जला लेती,
मगर कहां से लाएगी वह दूसरा चिराग?
अपनी बेबसी पे रोने के सिवा
और कोई चारा भी तो नहीं,
हां अगर सुबह हो जाती
तो सूरज को देख कर कुछ
गर्माहट ज़रूर मिलती,
पर यह निशा इतनी दयालु कहां।
(३)
भूख से बिलबिलाता चिराग
निचोड़े जा रहा है
मांस के एक टुकड़े को,
पर मजदूरी करके
सूख चुकी इस देह में
दूध कहां से आएगा,
शायद ये चिराग,
बिन तेल के,
यों ही बुझ जायेगा।
(४)
अथक प्रयास के बाद एक बूंद निकल ही आई,
पूरा न सही थोड़ा तो पेट भरेगा ,
शायद ये चिराग सवेरा देख लेगा,
इस बात से प्रसन्न मां उसे पुचकार रही है,
सहला रही है, दुलार रही है,
मां ने उसे सीने से हटाकर देखा,
उसे उठाकर उसे हिलाकर देखा,
दूध तो नहीं आया पर न जाने कहां से आया,
खारे पानी का एक सैलाब,
जो सारी आशाएं बहा ले गया,
अभी तक जो भूख से बिलख रहा था,
उसके मुख पर गहरी शांति थी,
किसी सिद्ध पुरुष की तरह वह चिराग,
समाधि में लीन हो गया था।