शालिनी द्विवेदी
श्रीमती शालिनी द्विवेदी लखनऊ की एक कवयित्री और दार्शनिक विचारक हैं। इन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए. एवं बी.एड. किया है। २०२० में इन्होंने ३० साल के अंतराल के बाद अपना लेखन करियर फिर से शुरू किया। यह नारीत्व, परिवार, संस्कृति और आस्था से संबंधित विषयों में विशेष रुचि लेती हैं। इनका काम दो काव्य संकलनों और इंडियन पीरियोडिकल सहित कुछ साहित्यिक पत्रिकाओं में छपा है।
पलाश सी विरक्ति
आज मैं पलाश वन में खड़ी हूं
जीवन के पचास वर्ष व्यतीत
हो गए यहां तक पहुंचने में
पहले तो मैं सेमल को ही पलाश
समझती रही, उसी से बतियाती रही
आज पलाश वृक्ष के नीचे खड़ी हूं
अंजुरी भर-भर फूल बटोर रही हूं
अंजुरी छोटी पड़ गई तो आंचल
फैला कर फूलो की सुगंध को
महसूस करती हुई मैं ख़ुद को
अपनी मां की लाडली बिटिया
समझने लगी, पता नहीं कैसे
अंतरात्मा से झुक कर तने और जड़ो को,
प्रणाम करती हुई मैं उससे
आशीर्वाद लेने लगी, वहीं तने से टेक
लगा कर बैठी रह गई, आज कुछ
महसूस करती हूं, कि कितनी
सहजता से अपने खूबसूरत फूलों को
यह वृक्ष इतने विरक्त भाव से
त्याग देता है,
पीड़ा तो तुमको भी होती होगी,
पर तुम झूम झूम कर पीड़ा
को विस्मृत कर देते हो
अपने खूबसूरत फूलों को अपने से
विलग कर देते हो, ताकि वो अपने
बीजों को धरा पर बिखेरे और बना दे
एक बड़ा सा पलाश वन
केसू, टेसू कितने नामों से
महिमामंडित तुम जीवन का राग
समझा देते हो, वैराग्य का ज्ञान
बता कर तुम पीड़ा को विस्मृत
करना बता देते हो, स्थिर रह कर
ख़ुश्बू बिखेरना तुमने
आज सिखला दिया, देर से मिले हो
देर तक रहना, जाने को ना कहना।